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75. अनीति का धन

अनीति से कमाया धन अपने साथ बहुत विकार लेकर आता है   । वह पूरी तरह से अनर्थ करने में सक्षम होता है । इसलिए सात्विक धन जो धर्मयुक्त है उसे ही अर्जित करना चाहिए । पुराने समय की बात है । एक जौ हरी एक गांव से दूसरे गांव जा रहा था । रास्ते में एक वृक्ष के नीचे खाना खाने रुका और उसका थैला जिसमें बहुमूल्य रत्न, हीरे और स्वर्ण मोहरे थी वह गलती से वहीं छूट गया । एक संत अपने शिष्य के साथ उधर से निकले । शिष्य की नजर उस धन पर पड़ी । उसने कहा कि इसे ले लेते हैं और सत्कर्म जैसे साधु सेवा, भंडा रे आदि में लगाते हैं तो वर्षों तक यह धन चलेगा । संत ने कहा कि यह अनीति का धन होगा इसलिए अनर्थ ही करेगा । किसी दूसरे का कमाया धन हमारे पास चोरी के रूप में अनीति से आएगा तो वह हमारा बिगाड़ ही करेगा । संत ने शिष्य को शिक्षा देने के लिए एक युक्ति की । वे दोनों एक पेड़ के पीछे छुप गए और संत ने कहा कि देखो आगे क्या होता है । तभी राजा के चार सिपाही घोड़े पर बैठकर उधर से गुजरे । उन्होंने धन देखा तो उनकी नियत बिगड़ गई । उन्होंने आपस में बात की कि राजकोष में जमा करने के बजाए हम चारों इसे आपस में बांट लेते हैं । ...
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74. प्रभु के लिए सब संभव

कुछ कार्य जगत में होने वाले होते हैं, कुछ का र्यों के होने में संदेह होता है क्योंकि वे दुर्गम होते हैं और कुछ कार्य पूर्णतया असंभव होते हैं । एक संत समझाते थे कि प्रभु के लिए कुछ भी करना पूर्णतया संभव है । जो कार्य जगत में होने वाले होते हैं वे प्रभु द्वारा हमारे लिए पूर्ण करवाए जाते हैं, जैसे दुकान या व्यापार का सफलतापूर्वक चलना या बेटे या बेटी का उचित समय उचित वर या वधु से विवाह होना । कुछ कार्य होने में संदेह होता है क्योंकि वे दुर्गम होते हैं पर वे भी प्रभु कृपा करके पूर्ण करवाते हैं जैसे किसी भयानक बीमारी से बचाना जिसके लिए डॉक्टर ने जवाब दे दिया, वह भी रोगी प्रभु कृपा से स्वस्थ हो जाते हैं और बच जाते हैं । कुछ कार्य असंभव होते हैं वह भी प्रभु कृपा से प्रभु संपन्न करवाते हैं, उदाहरण स्वरूप किसी को पुत्र योग ही नहीं है और फिर भी प्रभु कृपा करते हैं और उसके घर संतान का जन्म होता है । इसलिए संत कहते हैं कि जो कार्य जगत में होने वाले होते हैं वे तो प्रभु करते ही हैं, जो कार्य दुर्गम और कठिन होते हैं वे भी प्रभु करते हैं और जो पूर्णतया असंभव कार्य होते हैं वे भी प्रभु सफलता से अंज...

73. कर्मों का फल

प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने श्रीवचन में साफ-साफ कहा है कि जो कर्म हमने किया नहीं उसका फल हमें भोगना पड़ेगा नहीं और जो कर्म हमने किए हैं उसके फल हमें निश्चित भोगने पड़ेंगे । इसलिए संतों ने कहा है कि कोई इस जन्म में हमें दुःख दे रहा है तो वह मात्र वे दुःख पहुँचा रहा है जो हमारे पूर्व कर्मों ने तैयार किए हैं । एक संत एक कथा सुनाते थे । एक व्यक्ति एक फल की दुकान में गया और सभी सड़े गले फलों का सौदा किया, कीमत अदा की और फलवाले के पास ही स्थित उसके घर में पहुँचाने के लिए कहा । फलवाले ने कुछ समय बाद अप ने कर्मचारी के साथ सड़े गले फल उस व्यक्ति के दिए पत्ते पर उसके घर पर भिजवा दिए । जैसे ही सड़े गले फल पहुँचे वह व्यक्ति फलवाले के कर्मचारी से झगड़ने लगा कि इतने सड़े गले फल लाए हो । कर्मचारी ने जवाब दिया कि फल का चयन अपने ही किया था, मेरा कार्य तो आपके चयन किए फल को लाकर आपको देना है । मेरा कोई दोष नहीं । ऐसे ही हमने पूर्व जन्मों में पाप कर्म किए, उसका जो विपरीत फल है उसे कोई रिश्तेदार, मित्र, संबंधी हमें इस जन्म में दुःख के रूप में लाकर देता है । वह माध्यम बनता है ठीक उस फलवाले के...

72. संत स्वभाव

भक्ति के कारण भगवान से जुड़े होने के कारण सद्गुणों की प्रधानता संतों और भक्तों में पाई जाती है । यह उनके ऊपर प्रभु की कृपा प्रसादी होती है कि उनका स्वभाव ऐसा होता है जो प्रभु को प्रिय लगे । संसारी का स्वभाव ऐसा होता है जो उसके परिवार को भी प्रिय नहीं लगता, प्रभु को लगना तो बहुत दूर की बात है । एक संत सरोवर के जल में उतरकर आधे शरीर को जलमग्न करके मंत्र पाठ कर रहे थे । पास ही एक संसारी व्यक्ति सरोवर में नहा रहा था । संत को एक बिच्छू ने हाथों में डंक मारा तो उनका ध्यान गया कि बिच्छू सरोवर के जल में डूब रहा है । वे उसे पकड़कर सरोवर के बाहर छोड़ने का प्रयत्न करने लगे । जैसे ही संत अपने हाथों से बिच्छू को पकड़ते वह डंक मारता और संत के हाथों से छूट जाता । संत फिर उसे पकड़ने की कोशिश करते ताकि वे उसे सरोवर के पानी से निकालकर सुरक्षित भूमि में पहुँचा सके । बिच्छू फिर पकड़ने पर डंक मारता और संत के हाथ से छूट जाता । आखिरकार संत ने दोनों हाथों से बिच्छू को पकड़कर डंक के दर्द की परवाह किए बिना उसे सरोवर से बाहर निकाल दिया । सरोवर में जो व्यक्ति नहा रहा था वह यह पूरा नजारा देख रहा था । उसने संत से...

71. प्रभु पर विश्वास

मनुष्य के अलावा जो पशु पक्षी भी प्रभु पर विश्वास करते हैं उनका अमंगल कभी नहीं होता । यह शाश्वत सिद्धांत है । एक संत एक कथा सुनाते थे । एक नीम के पेड़ पर ढेर सारे कौवे रहते थे । एक रात एक तोता आया और कहा कि मौसम खराब है और वह राह भटक गया है इसलिए एक रात का आश्रय दे दें । कौवों ने मना कर दिया और कहा कि यह नीम का पेड़ हमारा है । तोता ने विनम्रता से कहा कि पेड़ तो सभी प्रभु के होते हैं पर कौवों ने उसे भगा दिया । तोता कुछ दूर पर एक आम के वृक्ष में जाकर बैठा । तभी घनघोर वर्षा हुई और बड़े-बड़े ओले गिरने लगे । तोता जिस आम की डाली पर बैठा था वह टूटकर गिरी और तोता डाल टूटने की वजह से डाल की जगह के खोखले स्थान में अपने आप जाकर लुढ़क   गया । ओले की मार से नीम के पेड़ के बहुत सारे कौवे घायल होकर जमीन पर गिर गए, कुछ तो मर भी गए पर तोता खोखली डाल में छिपे होने के कारण बच गया । उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा । एक भी ओला या व र्षा की बूंद ने उसे छुआ तक नहीं । तोता रात भर आराम से प्रभु का सिमरन करता रहा और सुबह जब वर्षा रुक गई , ईश्वर को प्रणाम करके आकाश में उड़ गया । भरोसा होने के कारण प्रभु ने उस तो...

70. प्रभु और माता

जब हम प्रभु के साथ माता का भक्ति से आह्वान करते हैं तो दोनों हम पर अनुग्रह करने पधारते हैं पर केवल माता को धन की लालसा से बुलाने पर वे स्थाई रूप से नहीं रुकती । एक संत विनोद में एक कथा सुनाते थे । एक बार प्रभु श्री नारायणजी को भगवती लक्ष्मी माता ने विनोद में कहा कि कलियुग में लोग केवल मेरी ही कामना करते हैं । प्रभु ने कहा कि मेरी कामना करने वाले भी कुछ बिरले भक्त हैं । ऐसे ही एक भक्त की परीक्षा लेने प्रभु और माता पृथ्वी पर आए । प्रभु एक संत का रूप धारण कर अपने भक्त एक सेठजी के घर पहुँचे । सेठजी ने बड़ा स्वागत सत्कार किया और रात को रुकने का आग्रह किया । तभी माता एक बुढ़िया का रूप धारण करके सेठजी के घर पहुँची । सेठजी ने उनका भी सत्कार किया और दोनों को भोजन परोसा । माता ने अपनी झोली से स्वर्ण की थाली, गिलास और कटोरी निकाल कर कहा कि भोजन वे इ समें ही करती हैं और भोजन के बाद दोबारा उन स्वर्ण के बर्तनों का इस्तेमाल नहीं करती और उसे भोजन करवाने करने वाले को दान दे देती है । उनके पास सिद्धि है और अगले भोजन के समय फिर उनकी झोली में स्वर्ण की थाली, गिलास और कटोरी प्रकट हो जाती है । माता ने कहा...

69. प्रभु द्वारा भक्तों को मान

प्रभु अपने से भी ज्यादा मान अपने भक्तों को देते हैं । प्रभु अपने प्रिय भक्तों को जगत से भी बहुत मान दिलाते हैं । जब प्रभु के भक्तों को मान मिलता है तो सबसे ज्यादा प्रसन्नता प्रभु को ही होती है । श्री रामायणजी का एक प्रसंग है । जब प्रभु श्री रामजी वनवास के लिए वन में गए तो उन्‍होंने सभी ऋषियों और मुनियों के आश्रम जाकर उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया । इसी श्रृंखला में प्रभु मुनि श्री भारद्वाजजी के आश्रम गए । जब प्रभु को मनाने के लिए श्री भरतलालजी वन में गए तो वे भी मुनि श्री भारद्वाजजी के आश्रम पर रुके । मुनि श्री भारद्वाजजी ने जो सबके सामने श्री भरतलालजी को कहा वह भक्त की महिमा बताने वाला उल्लेख था । उन्होंने कहा कि मेरे अभी तक के पुण्य, तपस्या और उपासना का फल था कि प्रभु श्री सीतारामजी मुझे दर्शन देने पधारे । पर प्रभु सीतारामजी के दर्शन का फल है जो एक परम भागवत् भक्त श्री भरतलालजी के दर्शन का सौभाग्य उन्हें आज प्राप्त हो रहा है । यह कितना बड़ा मान एक भक्त के लिए है कि प्रभु की अनुकंपा का फल होता है कि एक भक्त का दर्शन हमें जीवन में मिले । यह कितना बड़ा सच है कि प्रभु अपने से भी कितना ...