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05. केवल प्रभु को प्राथमिकता देना

हम जीवन में व्यापार, परिवार, शौक को प्राथमिकता देते हैं जबकि शास्त्र और संत कहते हैं कि प्राथमिकता जीवन में केवल और केवल प्रभु की होनी चाहिए । पर हमारा दुर्भाग्य होता है कि हम प्रभु को छोड़कर अन्य सभी को प्राथमिकता देते हैं । जैसे एक छोटे बच्चे को उसकी माँ द्वारा पड़ोस के बच्चे को प्यार करना अच्छा नहीं लगता वैसे ही प्रभु को भी प्रभु को छोड़कर जब हम किसी अन्य को प्राथमिकता देते हैं तो वह अच्छा नहीं लगता ।

श्री भक्तमालजी में भक्त श्री सेन नाईजी की कथा वर्णित है । वे भक्त श्री नामदेवजी के समकालीन थे और दोनों का नियम था कि हर एकादशी पूरी रात कीर्तन करने के लिए अपने गांव से श्रीपंढरपुर धाम जाते थे । एक बार की बात है कि दोनों भक्त अन्य भक्तों के साथ कीर्तन कर रहे थे । तभी प्रभु जो कि भक्तों से बातें किया करते थे उन्होंने भक्त श्री नामदेवजी से पूछा कि आज भक्त श्री सेन नाईजी नहीं आए क्या ? भक्त श्री नामदेवजी ने देखा कि भक्त श्री सेन नाईजी उनके ठीक बगल में कीर्तन कर रहे हैं । भक्त श्री नामदेवजी प्रभु का इशारा समझ गए कि आज भक्त श्री सेन नाईजी से कोई गलती हुई है । सुबह कीर्तन का विश्राम हुआ और जब वे दोनों वापस लौटने लगे तो भक्त श्री नामदेवजी ने भक्त श्री सेन नाईजी से पूछा कि आज आपका ध्यान कहाँ था क्योंकि प्रभु के समक्ष आपकी उपस्थिति आज दर्ज नहीं हुई । भक्त श्री सेन नाईजी को समझते देर न लगी कि उनसे क्या गलती हुई है । उन्होंने कहा कि वे जब गांव से निकले थे तो सोचा था कि श्रीपंढरपुर धाम जा ही रहे हैं तो उस्तरे को धार करने का पत्थर भी खरीद लेंगे । प्रभु के कीर्तन के संकल्प के साथ उन्होंने बस एक सांसारिक संकल्प भी जोड़ दिया था, यही गलती हो गई । प्रभु के अलावा किसी अन्य कार्य को प्राथमिकता देना प्रभु को अच्छा नहीं लगता और ऐसा करने पर प्रभु हमारी सेवा स्वीकार नहीं करते ।

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01. प्रभु के दो बड़े प्रण

प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने आश्रित का योगक्षेम वहन करने का प्रण लिया है । योगक्षेम दो शब्दों से बना है योग एवं क्षेम । योग का यहाँ अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उनकी शरण ग्रहण करने वाले को जिस भी चीज की जब भी जरूरत होगी प्रभु उसे उपलब्ध करवाएंगे । क्षेम का अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उसकी शरण ग्रहण करने वाले के पास जो भी है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । यह दोनों कितने विलक्षण प्रभु के प्रण हैं कि जब भी जिस भी चीज की उसे जरूरत होगी वह प्रभु पहुँचाएंगे और जो उसके पास है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । एक संत एक तीर्थ में रहने वाले पंडितजी की एक सत्य कथा सुनाते थे । एक पंडितजी नियमित रूप से मंदिर में श्रीमद् भगवद् गीताजी का पाठ करते थे और जो भी चढ़ावा आ जाता था उससे अपना घर चलाते थे । एक बार ऐसा हुआ कि तीन दिन तक कोई चढ़ावा नहीं आया और घर का चूल्हा बंद हो गया । उनकी पत्नी जो उनके जैसे श्रद्धावाली नहीं थी वह बिगड़ गई कि आपके प्रभु ऐसा योगक्षेम वहन करते हैं । पंडितजी को भी पत्नी की बात सुनकर उस समय गुस्सा आ गया और वे रात को मंदिर गए और श्रीमद् भगवद् गीताजी में लिखे योगक्षेम शब्द को ...

04. प्रभु की सेवा

हमारे घर के मंदिर में प्रभु का विग्रह होता है और हम उसकी सेवा करते हैं । सेवा करते - करते कभी हमें अपनी सेवा पर अभिमान आ जाए या लगे कि हम कितनी उत्कृष्ट सेवा कर रहे हैं तो प्रभु उस सेवा को स्वीकार नहीं करते । ऐसा नहीं हो इसलिए एक संत एक प्रसंग सुनाते थे । इस प्रसंग को बीच-बीच में पढ़ते रहना चाहिए । यह प्रसंग प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती यशोदा माता के संदर्भ में है । श्री नंद बाबा के पास नौ लाख गौ - माताएं थी । इसमें से श्रेष्ठ नस्ल की एक लाख गौ - माताओं को उन्होंने प्रभु के लिए रखा था यानी   उनका दूध अन्य कोई काम   में नहीं लिया जाता था । एक लाख गौ - माताओं का दूध दस हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस हजार गौ - माताओं का दूध एक हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । एक हजार गौ - माताओं का दूध सौ गौ - माताओं को पिलाया जाता था । सौ गौ - माताओं का दूध दस गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस गौ - माताओं का दूध एक गौ - माता को पिलाया जाता था इन एक गौ - माता को पद्मगंधा गौ - माता कहा जाता था । इन पद्मगंधा गौ - माता का दूध प्रभु को पिलाने के लिए, दही, छाछ, मक्खन के लिए उपयोग में लि...

20. हर जगह प्रभु को साथ रखें

एक आदत बना लें कि जब भी घर से निकलें तो मन में कहें कि प्रभु साथ चलें और मार्गदर्शन करें ताकि मैं कोई गलती न कर बैठूं । घर में रहें तो प्रभु की  मनोमय (मन में बनाई गई प्रभु की प्रतिमा)  प्रतिमा अपने कार्यस्थल में लगा कर रखें और बीच-बीच में कार्य करते-करते प्रभु को देखें और बात करें कि मैं सही कार्य कर रहा हूँ की नहीं । पांडवों ने प्रभु श्री कृष्णजी को सदैव अपने साथ रखा और प्रभु ने पग-पग पर उनकी रक्षा की ।   सौ कौरव मारे गए पर पांचो पांडव प्रभु कृपा से बच गए । भगवती कुंतीजी , जो पांडवों की माता थी , उन्होंने प्रभु का एहसान मानते हुए सारे प्रसंग गिनाए जब प्रभु ने साक्षात रूप से पांडवों के प्राणों की रक्षा की । इतना बड़ा युद्ध , अपने से विशाल सेना और अनेक महारथियों के होने के बाद भी प्रभु के कारण पांडवों को विजयश्री मिली , वो भी प्रभु के बिना शस्त्र उठाए । पर पांडव एक जगह प्रभु को बिना लिए और प्रभु को बिना पूछे गए और फंस गए । यह प्रसंग था जुए के न्‍योते का जो उनके ताऊजी धृतराष्ट्र ने भिजवाया था । अगर वे प्रभु से पूछते तो प्रभु मना कर देते कि नहीं जाना है । अगर पांडव दुह...