हम जीवन में व्यापार,
परिवार, शौक को प्राथमिकता देते हैं जबकि शास्त्र और संत कहते हैं कि
प्राथमिकता जीवन में केवल और केवल प्रभु की होनी चाहिए । पर हमारा दुर्भाग्य होता
है कि हम प्रभु को छोड़कर अन्य सभी को प्राथमिकता देते हैं । जैसे एक छोटे बच्चे
को उसकी माँ द्वारा पड़ोस के बच्चे को प्यार
करना अच्छा नहीं लगता वैसे ही प्रभु को भी प्रभु को छोड़कर जब हम किसी अन्य को
प्राथमिकता देते हैं तो वह अच्छा नहीं लगता ।
श्री भक्तमालजी में भक्त श्री सेन नाईजी की कथा वर्णित है । वे भक्त श्री नामदेवजी के समकालीन थे और दोनों का नियम था कि हर एकादशी पूरी रात कीर्तन करने के लिए अपने गांव से श्रीपंढरपुर धाम जाते थे । एक बार की बात है कि दोनों भक्त अन्य भक्तों के साथ कीर्तन कर रहे थे । तभी प्रभु जो कि भक्तों से बातें किया करते थे उन्होंने भक्त श्री नामदेवजी से पूछा कि आज भक्त श्री सेन नाईजी नहीं आए क्या ? भक्त श्री नामदेवजी ने देखा कि भक्त श्री सेन नाईजी उनके ठीक बगल में कीर्तन कर रहे हैं । भक्त श्री नामदेवजी प्रभु का इशारा समझ गए कि आज भक्त श्री सेन नाईजी से कोई गलती हुई है । सुबह कीर्तन का विश्राम हुआ और जब वे दोनों वापस लौटने लगे तो भक्त श्री नामदेवजी ने भक्त श्री सेन नाईजी से पूछा कि आज आपका ध्यान कहाँ था क्योंकि प्रभु के समक्ष आपकी उपस्थिति आज दर्ज नहीं हुई । भक्त श्री सेन नाईजी को समझते देर न लगी कि उनसे क्या गलती हुई है । उन्होंने कहा कि वे जब गांव से निकले थे तो सोचा था कि श्रीपंढरपुर धाम जा ही रहे हैं तो उस्तरे को धार करने का पत्थर भी खरीद लेंगे । प्रभु के कीर्तन के संकल्प के साथ उन्होंने बस एक सांसारिक संकल्प भी जोड़ दिया था, यही गलती हो गई । प्रभु के अलावा किसी अन्य कार्य को प्राथमिकता देना प्रभु को अच्छा नहीं लगता और ऐसा करने पर प्रभु हमारी सेवा स्वीकार नहीं करते ।