हम अपना पूरा जीवन सांसारिक धन कमाने में लगा देते हैं । हम इतना धन कमाना चाहते हैं कि हमारे लिए भी और हमारी आने वाली सात पीढ़ियों के लिए भी कम न पड़े । ऐसा करते हुए हम अपने जीवन के एक बहुत बड़े भाग का उपयोग इस हेतु कर देते हैं । प्रभु को प्रसन्न करने वाला और हमारा इक्कीस पीढ़ियों समेत उद्धार करवाने वाला भक्तिरूपी धन कमाना हम भूल जाते हैं । यह इतनी बड़ी चूक होती है कि इस चूक के कारण चौरासी लाख योनियों में फिर से हमें भ्रमण करना पड़ता है ।
श्री भक्तमालजी में भक्त श्री रांकाजी और भक्ता श्रीमति बांकाजी की कथा आती है । दोनों पति-पत्नी थे और प्रभु के परम भक्त थे । वे भक्ति से संपन्न थे पर धन से संपन्न नहीं थे । एक बार दोनों कहीं जा रहे थे तो भक्त श्री रांकाजी आगे चल रहे थे और रास्ते में उन्हें स्वर्ण मोहरें बिखरी हुई दिखी । वे भक्त थे इसलिए उनके मन में लालच नहीं आया और वे उन मुहरों पर मिट्टी डालने लगे जिससे वे ढक जाए और पीछे आ रही पत्नी की दृष्टि में नहीं आए । उन्हें डर था कि कहीं पत्नी की नियत मोहरें देखकर बदल न जाए । पत्नी ने जब देखा कि उनके पति स्वर्ण मुहरों के ऊपर मिट्टी डाल रहे हैं तो उन्होंने एक बहुत मार्मिक बात अपने पति से कही । पत्नी ने कहा कि आप मिट्टी पर मिट्टी क्यों डाल रहे हैं । यह सत्य है कि प्रभु के घर सोना, चांदी, हीरा, मोती सब मिट्टी के बराबर है । सच्चा धन जो प्रभु के पास है वह भक्ति का धन है । प्रभु मिट्टी देने में सोचते नहीं और सभी को दे देते हैं पर अपनी भक्ति लाखों में किसी एक बिरले को ही देते हैं । इसलिए यह शास्त्र की मान्यता है कि भक्ति धन के आगे संसार का धन बहुत गौण है ।