जीवन में सौभाग्य को भी हम भोगते हैं और
दुर्भाग्य को भी हम भोगते हैं । ऐसा क्यों होता है कि जीवन में सौभाग्य टिकता
नहीं और दुर्भाग्य हमारा पीछा छोड़ता नहीं । सिद्धांत के तौर पर एक बात अगर हम
स्वीकार करेंगे तो इसका उत्तर हमें मिल जाएगा । फिर जीवन में सौभाग्य हमारे साथ
सदा स्थिर रहेगा और दुर्भाग्य हमारे जीवन में आने की हिम्मत भी नहीं करेगा । सिद्धांत
यह है कि प्रभु जिसके जीवन में हैं वहीं सौभाग्य स्थिर है और प्रभु जिसके जीवन में
नहीं है वहाँ दुर्भाग्य आकर स्थिर हो जाता है ।
इसका पौराणिक उदाहरण देखें तो यह तथ्य समझ में
आएगा । प्रभु श्री रामजी को जब वनवास मिला और वे श्री अयोध्याजी को छोड़कर वन में
गए तो श्री अयोध्याजी में दुर्भाग्य की होड़ लग गई । महाराज श्री दशरथजी का परलोक गमन हुआ । श्री
भरतलालजी जब अपने गुरुजी के बुलावे पर अपने ननिहाल से श्री अयोध्याजी आए तो उन्हें
श्री अयोध्याजी में भयंकर अपशगुन मिले और वह विरान और दुर्भाग्यग्रस्त जान पड़ी । फिर
जब प्रभु श्री रामजी वनवास काल पूर्ण कर वापस श्री अयोध्याजी आए और उनका
राजसिंहासन पर राज्याभिषेक हुआ तो श्री अयोध्याजी में सौभाग्य की होड़ लग गई । कोई
दरिद्र,
अज्ञानी,
रोगी नहीं रहा । किसी की कम उम्र में मृत्यु नहीं हुई । सभी स्वस्थ, संपन्न, ज्ञानी, गुणी बनकर रहने
लगे । यहाँ तक कि श्री अयोध्याजी के आसपास रहने वाले पशु पक्षी भी वैर भुलाकर संग रहने लगे
। कभी अकाल नहीं पड़ा, कभी पानी की कमी नहीं हुई । धरती माता खूब अन्न
देती, वर्षा जल से नदी सरोवर सदा
भरे रहते । सूत्र के तौर पर यह समझना चाहिए कि अगर जीवन में सौभाग्य को स्थिर रखना
है तो भक्ति करके जीवन में प्रभु को लाना पड़ेगा ।