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11. प्रभु के बराबर प्रभु का नाम

प्रभु के नाम जापक की इतनी महिमा होती है कि प्रभु के शस्त्र भी उसका सम्मान करते हैं और नाम जापक का अमंगल नहीं करते । प्रभु के नाम की महिमा अपार है और प्रभु के नाम में प्रभु की सारी शक्तियां समाहित है । जो-जो प्रभु कर सकते हैं प्रभु का नाम भी वह-वह कर सकता है । इससे ही हम प्रभु के नाम के सामर्थ्य का अंदाजा लगा सकते हैं ।

श्रीराम राज्य की एक कथा है । एक बार श्रीकाशी नरेश प्रभु श्री रामजी के दर्शन करने श्री अयोध्याजी आए । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी प्रभु के नाम की महिमा प्रकट करना चाहते थे इसलिए उन्होंने श्रीकाशी नरेश को इसके लिए माध्यम बनाया और उनसे कहा कि राज्यसभा में सबको प्रणाम करना पर ऋषि श्री विश्वामित्रजी को न तो प्रणाम करना और न ही उनकी तरफ देखना । श्रीकाशी नरेश ने ऐसा ही किया और इससे ऋषि श्री विश्वामित्रजी क्रोधित होकर रुष्ट हो गए और प्रभु से कहा कि आज सूर्यास्त तक इस श्रीकाशी नरेश का आपको वध करना है । श्रीकाशी नरेश यह सुनते ही भागे । रास्ते में देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने उन्हें प्रभु श्री हनुमानजी की माता भगवती अंजनीजी की शरण जाने को कहा । वे तुरंत भगवती अंजनी माता की शरण में गए और उन्हें शरण मिल गई । पर जब भगवती अंजनी माता को पता चला कि प्रभु श्री रामजी ने सूर्यास्त तक इनके वध का प्रण लिया है उन्होंने अपने पुत्र प्रभु श्री हनुमानजी से श्रीकाशी नरेश की रक्षा करने को कहा । प्रभु श्री हनुमानजी निरंतर प्रभु श्री रामजी का नाम जपते रहते हैं और उन्हें पता है कि प्रभु के शस्त्र से प्रभु का नाम ही श्रीकाशी नरेश की रक्षा कर सकता है । उन्होंने सरयू मैया में श्रीकाशी नरेश को स्नान करने को कहा और वहीं श्रीराम-श्रीराम का निरंतर जप करने को कहा । उन्होंने कहा कि प्रभु का शस्त्र भी आए तो भी नाम जप नहीं छोड़े । श्रीकाशी नरेश ने ऐसा ही किया । प्रभु ने अपना अमोघ बाण चलाया पर वह बाण श्रीकाशी नरेश की परिक्रमा करके वापस प्रभु के तरक में चला गया । यह देखकर देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने ऋषि श्री विश्वामित्रजी का गुस्सा शांत करवाया और कहा कि उनके कहने पर ही श्रीकाशी नरेश ने राज्यसभा में उनका अनादर किया । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने प्रभु श्री रामजी और ऋषि श्री विश्वामित्रजी से श्रीकाशी नरेश को अभय दिलाया और प्रभु के नाम जापक की महिमा को इस तरह जग जाहिर किया

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01. प्रभु के दो बड़े प्रण

प्रभु ने श्रीमद् भगवद् गीताजी में अपने आश्रित का योगक्षेम वहन करने का प्रण लिया है । योगक्षेम दो शब्दों से बना है योग एवं क्षेम । योग का यहाँ अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उनकी शरण ग्रहण करने वाले को जिस भी चीज की जब भी जरूरत होगी प्रभु उसे उपलब्ध करवाएंगे । क्षेम का अर्थ है कि प्रभु कहते हैं कि उसकी शरण ग्रहण करने वाले के पास जो भी है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । यह दोनों कितने विलक्षण प्रभु के प्रण हैं कि जब भी जिस भी चीज की उसे जरूरत होगी वह प्रभु पहुँचाएंगे और जो उसके पास है प्रभु उसकी रक्षा करेंगे । एक संत एक तीर्थ में रहने वाले पंडितजी की एक सत्य कथा सुनाते थे । एक पंडितजी नियमित रूप से मंदिर में श्रीमद् भगवद् गीताजी का पाठ करते थे और जो भी चढ़ावा आ जाता था उससे अपना घर चलाते थे । एक बार ऐसा हुआ कि तीन दिन तक कोई चढ़ावा नहीं आया और घर का चूल्हा बंद हो गया । उनकी पत्नी जो उनके जैसे श्रद्धावाली नहीं थी वह बिगड़ गई कि आपके प्रभु ऐसा योगक्षेम वहन करते हैं । पंडितजी को भी पत्नी की बात सुनकर उस समय गुस्सा आ गया और वे रात को मंदिर गए और श्रीमद् भगवद् गीताजी में लिखे योगक्षेम शब्द को ...

04. प्रभु की सेवा

हमारे घर के मंदिर में प्रभु का विग्रह होता है और हम उसकी सेवा करते हैं । सेवा करते - करते कभी हमें अपनी सेवा पर अभिमान आ जाए या लगे कि हम कितनी उत्कृष्ट सेवा कर रहे हैं तो प्रभु उस सेवा को स्वीकार नहीं करते । ऐसा नहीं हो इसलिए एक संत एक प्रसंग सुनाते थे । इस प्रसंग को बीच-बीच में पढ़ते रहना चाहिए । यह प्रसंग प्रभु श्री कृष्णजी और भगवती यशोदा माता के संदर्भ में है । श्री नंद बाबा के पास नौ लाख गौ - माताएं थी । इसमें से श्रेष्ठ नस्ल की एक लाख गौ - माताओं को उन्होंने प्रभु के लिए रखा था यानी   उनका दूध अन्य कोई काम   में नहीं लिया जाता था । एक लाख गौ - माताओं का दूध दस हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस हजार गौ - माताओं का दूध एक हजार गौ - माताओं को पिलाया जाता था । एक हजार गौ - माताओं का दूध सौ गौ - माताओं को पिलाया जाता था । सौ गौ - माताओं का दूध दस गौ - माताओं को पिलाया जाता था । दस गौ - माताओं का दूध एक गौ - माता को पिलाया जाता था इन एक गौ - माता को पद्मगंधा गौ - माता कहा जाता था । इन पद्मगंधा गौ - माता का दूध प्रभु को पिलाने के लिए, दही, छाछ, मक्खन के लिए उपयोग में लि...

20. हर जगह प्रभु को साथ रखें

एक आदत बना लें कि जब भी घर से निकलें तो मन में कहें कि प्रभु साथ चलें और मार्गदर्शन करें ताकि मैं कोई गलती न कर बैठूं । घर में रहें तो प्रभु की  मनोमय (मन में बनाई गई प्रभु की प्रतिमा)  प्रतिमा अपने कार्यस्थल में लगा कर रखें और बीच-बीच में कार्य करते-करते प्रभु को देखें और बात करें कि मैं सही कार्य कर रहा हूँ की नहीं । पांडवों ने प्रभु श्री कृष्णजी को सदैव अपने साथ रखा और प्रभु ने पग-पग पर उनकी रक्षा की ।   सौ कौरव मारे गए पर पांचो पांडव प्रभु कृपा से बच गए । भगवती कुंतीजी , जो पांडवों की माता थी , उन्होंने प्रभु का एहसान मानते हुए सारे प्रसंग गिनाए जब प्रभु ने साक्षात रूप से पांडवों के प्राणों की रक्षा की । इतना बड़ा युद्ध , अपने से विशाल सेना और अनेक महारथियों के होने के बाद भी प्रभु के कारण पांडवों को विजयश्री मिली , वो भी प्रभु के बिना शस्त्र उठाए । पर पांडव एक जगह प्रभु को बिना लिए और प्रभु को बिना पूछे गए और फंस गए । यह प्रसंग था जुए के न्‍योते का जो उनके ताऊजी धृतराष्ट्र ने भिजवाया था । अगर वे प्रभु से पूछते तो प्रभु मना कर देते कि नहीं जाना है । अगर पांडव दुह...