जो भक्त प्रभु की भक्ति
करता है उसे समय-समय पर प्रभु का दिशानिर्देश और प्रभु की सहायता प्राप्त होती
रहती है । किसी भी कार्य के सफल संपादन में नाम उस भक्त का होता है पर करने वाले
प्रभु ही होते हैं । प्रभु कभी श्रेय लेना नहीं चाहते । अपने भक्त को श्रेय दिलाकर
और जगत में उसका मान बढ़ाकर प्रभु को सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है ।
लंका में जब प्रभु श्री हनुमानजी पहुँचे तो
प्रभु ने पहले से बाल्यकाल में ही उन्हें श्री अग्निदेवजी से वरदान दिला दिया था
कि अग्नि उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकेगी और प्रभु श्री हनुमानजी अग्नि के प्रभाव
से सदा के लिए सुरक्षित रहेंगे । प्रभु ने ऐसा इसलिए करवाया क्योंकि प्रभु को पता
था कि प्रभु श्री हनुमानजी को लंका जलाना है । लंका जलाने की प्रेरणा भी प्रभु ने
अशोक वाटिका में पेड़ पर बैठे और भगवती सीता माता के दर्शन कर चुकने के बाद
त्रिजटा के मुँह से स्वप्न के रूप में प्रभु
श्री हनुमानजी को दी । प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीपूंछ जलाने की बुद्धि भी प्रभु ने भगवती सरस्वती माता के
द्वारा रावण को दी । जब प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीपूंछ में आग लगाई गई और प्रभु
श्री हनुमानजी बंधन को तोड़कर निकले तो सभी दिशाओं से प्रभु प्रेरणा से तेज हवाएं चलने लगी जिसने अग्नि को
पूरी लंका में फैलाने का कार्य किया । श्री अग्निदेवजी का वरदान था और प्रभु श्री
रामजी और भगवती सीता माता का आशीर्वाद था कि पूरी लंका दहक-दहक कर जल गई पर प्रभु श्री हनुमानजी की श्रीपूंछ का एक बाल भी नहीं जला । लंका दहन का पूरा-पूरा श्रेय प्रभु श्री हनुमानजी को मिला और उनका पराक्रम
जगजाहिर करके प्रभु अति आनंदित हुए ।