शास्त्रों में एक बात हर जगह प्रतिपादित है कि
प्रभु के लिए अनन्यता होनी चाहिए । अनन्यता का सीधा अर्थ है कि अन्य नहीं, केवल प्रभु । अन्य को हम
साथ में रखते हैं तो प्रभु हस्तक्षेप नहीं करते ।
भगवती द्रौपदीजी की लाज प्रभु ने बचाई । भगवती द्रौपदीजी
ने प्रभु से बाद में एक बार प्रश्न किया कि जब लाज बचानी थी तो पहले क्यों नहीं आए, अंतिम अवस्था में ही
क्यों आए ?
प्रभु ने बड़ा
मार्मिक उत्तर दिया । प्रभु बोले कि पहले तुमने मुझे पुकारा और साथ में अपने
पतियों को भी पुकारा । पति कुछ न कर पाए तो मेरे साथ में श्री भीष्म पितामह, गुरु श्री द्रोणाचार्य और
श्री कृपाचार्य और ससुर धृतराष्ट्र को भी पुकारा । फिर मेरे साथ अपने बल पर भरोसा
किया,
दोनों हाथों से साड़ी पकड़ कर रखी और मुँह से साड़ी दबा कर रखी । फिर एक हाथ से
साड़ी छोड़ी, कुछ समय के बाद दूसरे हाथ से साड़ी छोड़ी
। पर जब अंतिम जगह मुँह से पकड़ी साड़ी भी छोड़ी और मुझे अनन्य होकर पुकारा तो मैं
तुरंत आ गया और वस्त्र अवतार लेकर अपने भक्त से लिपट गया । प्रभु ने कहा कि जब
तुमने सबसे पहले पुकारा था तो मैं श्रीद्वारकापुरी में खाना खाने बैठा था । तुम्हारी
पुकार सुनते ही मैं खाना त्याग कर तैयार बैठा रहा कि कब अनन्य होकर केवल मुझ पर
भरोसा करके मुझे पुकारे । भगवती रुक्मिणीजी ने भी मुझसे कहा कि प्रभु आप लाज बचाने
जाते क्यों नहीं तो मैंने यही उत्तर दिया कि अभी उसे अपने कुटुंबबल, शारीरिक बल पर भरोसा है, अनन्यता से केवल
मुझ पर भरोसा नहीं है । प्रभु को अनन्यता बड़ी प्रिय है । एक सांसारिक पिता भी
चाहेगा कि उसका छोटा बेटा केवल उस पर भरोसा करे । एक पति भी चाहता है कि उसकी
पत्नी केवल उसका आश्रय लेकर रखे । ऐसे ही प्रभु भी चाहते हैं कि उनका भक्त केवल
अनन्य भाव से उनका आश्रय जीवन में ले कर रहे, अन्य सांसारिक आश्रयों का त्याग करे ।