एक आदत बना लें कि जब भी घर से निकलें तो मन में
कहें कि प्रभु साथ चलें और मार्गदर्शन करें ताकि मैं कोई गलती न कर बैठूं । घर में
रहें तो प्रभु की मनोमय
(मन में बनाई गई प्रभु की प्रतिमा) प्रतिमा अपने कार्यस्थल में लगा कर रखें और बीच-बीच में
कार्य करते-करते प्रभु को देखें और बात करें कि मैं सही कार्य कर रहा हूँ की नहीं ।
पांडवों ने प्रभु श्री कृष्णजी को सदैव अपने साथ
रखा और प्रभु ने पग-पग पर उनकी रक्षा की ।
सौ कौरव मारे गए पर पांचो पांडव प्रभु कृपा से बच गए । भगवती कुंतीजी, जो पांडवों की माता
थी,
उन्होंने प्रभु का एहसान मानते हुए सारे प्रसंग गिनाए जब प्रभु ने साक्षात रूप से
पांडवों के प्राणों की रक्षा की । इतना बड़ा युद्ध, अपने से विशाल सेना और अनेक
महारथियों के होने के बाद भी प्रभु के कारण पांडवों को विजयश्री मिली, वो भी
प्रभु के बिना शस्त्र उठाए । पर पांडव एक जगह प्रभु को बिना लिए और प्रभु को बिना
पूछे गए और फंस गए । यह प्रसंग था जुए के न्योते का जो उनके ताऊजी धृतराष्ट्र ने
भिजवाया था । अगर वे प्रभु से पूछते तो प्रभु मना कर देते कि नहीं जाना है । अगर
पांडव दुहाई देते कि ताऊजी की आज्ञा का उल्लंघन कैसे करें और क्षत्रियों को द्यूत यानी
जुए और युद्ध का न्योता स्वीकार करना पड़ता है तो पांडवों के साथ प्रभु जाते । दुर्योधन
कहता कि मेरी तरफ से शकुनि दांव खेलेगा और श्री युधिष्ठिरजी कहते कि प्रभु श्री
कृष्णजी हमारी तरफ से खेलेंगे । प्रभु के सामने शकुनि की एक चाल भी नहीं चलती और पांडव
आसानी से द्यूत जीत जाते । पांडवों की जो द्यूत हारने पर दुर्दशा हुई उससे वे बच
जाते और वह दुर्दशा कौरवों की होती । प्रभु ने द्यूत हारकर आने के बाद श्री युधिष्ठिरजी
से यही बात पूछी कि मुझे क्यों नहीं पूछा और मुझे साथ क्यों नहीं ले गए । अकेले
बिना पूछे क्यों चले गए । यह प्रसंग हमें यह सिखाता है कि प्रभु को हमेशा साथ रखना
चाहिए ।