वैसे तो प्रभु अपने संकल्प मात्र से ब्रह्मांडों का निर्माण, संचालन और लय कर सकते हैं पर अपने
प्रेमी भक्तों के लिए उन्हें प्रत्यक्ष आना ही पड़ता है ।
पुराने समय की बात है । एक गाँव में एक मंदिर
में श्रीराम दरबार की सेवा थी और कुछ संत वहाँ रहते थे और सेवा, कीर्तन, जप और पूजा
करते थे । जो भी मंदिर में दिन भर में चढ़ावा आता था उसे
बनिए की दुकान में भेजकर राशन मंगा लेते थे और प्रभु को भोग लगाकर प्रसाद रूप में
उसे ग्रहण कर लेते थे । एक बार दो दिनों तक कोई चढ़ावा नहीं आया । संत बनिए की
दुकान में उधार सामान लेने गए ताकि प्रभु को भोग लग जाए पर बनिए ने उधार देने से साफ
मना कर दिया । संतों ने प्रभु को जल का भोग लगाया और स्वयं भी जल पीकर सो गए । रात
को चार बालक बनिए के घर पहुँचे और कहा कि उनके पीतांबर में बारह
स्वर्ण मोहरे हैं जिससे रोजाना वर्ष भर तक मंदिर में राशन भिजवाने की व्यवस्था
करनी है । सुबह बनिया राशन और पीतांबर लेकर मंदिर पहुँचा और
रात की पूरी बात बताई और क्षमा याचना की और कहा कि उसे इतना
धन उसे प्राप्त हो गया है कि वह पूरे वर्ष राशन भेजता रहेगा । जब संतों ने पीतांबर देखा तो उन्हें समझते देर न लगी कि पीतांबर प्रभु
श्री रामजी का है और चारों भाई रात में बनिए के यहाँ स्वर्ण मुद्रा लेकर संतों की
व्यवस्था करने प्रत्यक्ष गए थे । बनिए को भी जब पता चला कि वे स्वयं प्रभु थे जो
रात को दर्शन देने आए थे तो वह भी भक्त बन गया ।