प्रभु भाव और प्रेम से रीझ जाते हैं । प्रभु को
रिझाने में प्रेम की अनिवार्यता होती है । प्रभु किसी सांसारिक पदार्थ, धन इत्यादि से नहीं रिझते । अगर हम
सांसारिक पदार्थ, धन भी प्रभु को निवेदन करते हैं तो प्रभु उसके पीछे छिपे प्रेम भाव
को देखते हैं ।
एक भक्त था जो रोज एक पुष्प प्रभु के मंदिर में
पुजारीजी को प्रभु के श्रीकमलचरणों में चढ़ाने के लिए निवेदन करता था । बहुत दिनों
से यह उसका नियम था । एक दिन रोजाना की तरह बाजार में पुष्प वाले के पास गया और
सबसे मनमोहक पुष्प प्रभु को भाव से वहीं अर्पण कर उसकी कीमत चुकाने लगा । तभी एक
सेठजी को भी वही पुष्प अपनी सेठानी के लिए पसंद आ गया । उन्होंने दोगुनी रकम देनी
चाही । फूल का दुकानदार लालची था उसने कहा कि दोनों बोली लगा लो और जो जीत जाए वह
रकम मुझे देकर फूल ले जाए । वह भक्त प्रभु प्रेम में दीवाना था और वह सेठजी अपनी पत्नी
प्रेम में दीवाने थे । क्योंकि उस भक्त ने वह पुष्प भाव से प्रभु को वहीं अर्पण कर
दिया था इसलिए प्रभु को अर्पित वस्तु वह छोड़ नहीं सकता था । बोली इतनी बड़ी हो गई
कि भक्त को अपना खेत बेचने तक की नौबत आ गई । इतनी बड़ी बोली देखकर सेठजी ने सोचा
कि फूल तो दो घंटे में मुरझा जाएगा पर इतनी बड़ी रकम से तो मैं स्वर्ण हार अपनी
पत्नी को भेंट कर सकता हूँ । सेठजी बाजी छोड़ कर चले गए । भक्त अपने खेत को बेचकर
रकम लेकर आया और फूल के दुकानदार को देकर पुष्प लेकर मंदिर पहुँचा । जैसे ही
पुजारीजी नित्य की तरह पुष्प प्रभु के श्रीकमलचरणों में निवेदन करने लगे प्रभु
प्रकट हो गए और अपने ही श्रीहाथों से पुष्प को लेकर अपने मस्तक पर धारण किया । प्रभु
ने कहा कि अपना सर्वस्व देकर फिर भी प्रेम के कारण लाए इस पुष्प का स्थान मेरे
श्रीचरणों में नहीं बल्कि मेरे मस्तक पर है ।