सत्कर्म, पूजा, सत्संग और भजन
कभी व्यर्थ नहीं जाते । वे हमारे पूर्व के संचित पाप काटते हैं और वर्तमान जीवन
में हमारा कल्याण और उद्धार कराते हैं ।
एक संत एक कथा सुनाते थे । दो दोस्त थे । एक बहुत अमीर पर नशा, जुआ, व्यभिचार और गलत आचरण करने वाला नास्तिक था । दूसरा बहुत गरीब था पर पूजा-पाठ, भजन और सत्संग और श्रीग्रंथों का स्वाध्याय करने वाला आस्तिक था । दोनों एक बार जंगल के रास्ते किसी दूसरे गांव कोई मेला देखने जा रहे थे । गरीब दोस्त को रास्ते में ठोकर लगी और पैर में से रक्त बहने लगा । उससे आगे चल रहे अमीर दोस्त को भी ठोकर लगी पर उसे कुछ नहीं हुआ और उसे लगा कि कुछ जमीन में दबा हुआ है जिसके कारण ठोकर लगी है । उसने खोद कर देखा तो एक स्वर्ण कलश में सोने की मोहरे मिली । वह खुशी-खुशी अपने दोस्त गरीब दोस्त का मजाक उड़ाने आया कि ठोकर दोनों को लगी पर तुम्हें खून निकल गया और मुझे बेइंतहा धन मिला । तभी आकाशवाणी हुई कि जिसे खून आया है उसकी आज मौत लिखी थी पर सत्संग और भजन के प्रभाव से छोटी-सी चोट में प्रभु ने उसे टाल दिया । और जिसे स्वर्ण मुद्राएं मिली है उसके भाग्य में आज एक राजा के राजकोष जितना खजाना लिखा था पर गलत आचरण के कारण और प्रभु से विमुख होने के कारण वह मात्र कुछ स्वर्ण की मोहरे बनकर ही उसे मिला है । आकाशवाणी सुनकर आस्तिक को प्रभु कृपा देखकर खुशी हुई और नास्तिक को बड़ा पछतावा हुआ और उसने भी प्रभु की कृपा देखकर भक्ति करने का निश्चय किया । नास्तिक को सिद्धांत समझ में आ गया कि प्रभु के सम्मुख होने पर और भक्ति करने पर हमारे बुरे प्रारब्ध कटते हैं और अच्छा फल कई गुना बढ़कर हमें मिलता है ।